आदर्श हिमाचल ब्यूरो
दिल्ली /चेन्नई। बीते दस सालों में हर साल 7-8 भीषण फ्लाई ऎश डाईक (कोयले की विषैली राख के तालाब) की दुर्घटनाएँ हुई हैं जिनमें जान और माल का नुकसान हुआ। इनके टूटने पर खेतों का बंजर हो जाना, नदियों का विषाक्त होना और लोगों का अपनी जान से हाथ धोना सब आम बातें हैं । इन दुर्घटनाओं की अनदेखी और इन्हें नज़रअंदाज़ किये जाने का सिलसिला इन दस सालों में जस का तस आज भी वैसा ही जारी है।
इसका एक जीता जागता उदाहरण है – 10 अप्रैल 2020 को सिंगरौली में रिलायंस का राखड़ का बांध टूटा और गांव में ‘राख की बाढ़’ आ गई, इस हादसे में छह लोगों की मौत हो गई है , कई मकान भी राख के दलदल में समाहित हो गए। गौरतलब है कि ऐश डैम (राखड़ बांध) में बिजली संयंत्रों में कोयले के जलने के बाद निकली राख जिसे फ्लाई ऐश भी कहा जाता है, को जमा किया जाता है। जिसे ऐश डाइक कहते हैं। फ्लाई ऐश एक खतरनाक प्रदूषक है जिसमें अम्लीय, विषाक्त और रेडियोधर्मी पदार्थ तक होते हैं। इस राख में न सिर्फ़ सीसा, आर्सेनिक, पारा, और कैडमि
हेल्थी एनर्जी इनीशिएटिव इंडिया और कम्युनिटी एनवायरमेंटल मॉनिटरिंग की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार 2010 से जून 2020 के बीच देशभर में कम से कम 76 प्रमुख फ्लाई ऎश डाईक दुर्घटनाएं हुई। “कोल ऐश इन इंडिया- ए कम्
रिपोर्ट के अनुसार फ्लाई ऐश के बिखरने की बहुत सारी दैनिक घटनाएं संज्ञान में ही नहीं आती, और यह आंकड़े तो समस्या की एक झलक भर हैं। सबसे अधिक सांद्रता वाले कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट में मध्य प्रदेश,ओडीशा ,झारखंड, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु ,छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे राज्य कोयला राख दुर्घटनाओं की सूची में शीर्ष पर हैं क्योंकि बड़ी संख्या में बिजली संयंत्र नदियों या तट जैसे जल निकायों के करीब स्थित है इसलिए सामान्य राख का निर्वहन तालाबों को दरकिनार करते हुए सीधे उनमें प्रवाहित होता है।
हेल्थी एनर्जी इनीशिएटिव इंडिया की समन्वयक श्वेता नारायण कहती हैं– “खनन और कोयला राख ने अपनी तरफ ध्यान आकृष्ट किया है पर राख और उसके निस्तारण के तरीके पर गौर करना अभी भी शेष है। जनता का गुस्सा कोयला राख प्रदूषण से संबंधित बड़ी दुर्घटनाओं तक ही सीमित है। राख तालाब के निकट बसे समुदायों में घुलता धीमा जहर आज भी संज्ञान में नहीं लिया जाता।यह रिपोर्ट भारत में कोल ऐश प्रबंधन और उसके स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ रहे दुष्प्रभाव के बारे में बताती है ” रिपोर्ट में वर्षों से कोयला राख प्रबंधन के विनियामक ढांचे में आयी ढील को इंगित किया है जिनके चलते बिजली उत्पादकों ने पर्यावरण सुरक्षा उपायों और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रोटोकॉल का मजाक बनाकर रख दिया है:
●राख सामग्री को कम करने के लिए कोयले की धुलाई अनिवार्य थी और इस आशय की अधिसूचना 1997,1998 और 1999 में पारित की गई। इसके बाद सरकार ने 2 जनवरी 2014 को एक गजट अधिसूचना जारी की जिसमें कोयला खदान की सभी थर्मल इकाइयों को 500 किलोमीटर से अधिक की आपूर्ति के लिए कोयले की धुलाई अनिवार्य हो गई। मई 2020 को पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ( MoEFCC)ने भारत के नीति आयोग द्वारा पेश किए गए आर्थिक औचित्य के आधार पर बिजली एवं कोयले के मंत्रालयों के लिए एक विवादास्पद संशोधन के माध्यम से कोयले की धुलाई को वैकल्पिक बना दिया।हालांकि यह निर्णय फ्लाई ऐश परम्परा में होने वाली वृद्धि और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार नहीं है।
● वर्ष 2000 में फ्लाई ऐश के वर्गीकरण को “खतरनाक औद्योगिक अपशिष्ट “की श्रेणी से “वेस्ट मटीरियल “की श्रेणी में रख दिया।मंत्रालय ने पुनर्वर्गीकरण के पीछे कोई स्वास्थ्य संबंधी वैज्ञानिक औचित्य नहीं दिया।
●1999 की फ्लाई ऐश अधिसूचना सीमेंट ,कंक्रीट ब्लॉक,ईंटों, पैनलों जैसी सामग्री या सडकों, तटबंधों और बाॅधों के निर्माण के लिए या किसी अन्य निर्माण गतिविधियों के लिए थर्मल पावर स्टेशनों (TPPs) से 300 किलोमी
विद्युत मंत्रालय के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार भारत में 2018-19 में 217.04 मिलियन मेट्रिक टन राख उत्पन्न हुई। 2032 तक यह 600 मिलियन को पार कर सकती है।कोयला राख में जहरीले रसायन जैसे आर्सेनिक, एल्युमीनियम, सुरमा ,
कैंब्रिज (यू के) के हेल्थ केयर सलाहकार डॉक्टर मनन गांगुली ने कहा-” कुल मिलाकर कोल ऐश नुकसानदेह न दिखते हुए भी एक धीमा ज़हर है आमतौर पर कोयले की राख में अन्य कार्सिनोजेन और न्यूरोटॉक्सिंस के साथ शीशा ,पारा, सेलेनियम ,हेक्सावे
● भारतीय विनियमों में कोयले की राख को खतरनाक अपशिष्ट के रूप में मान्यता नहीं दी इसलिए बिजली कंपनियां फ्लाई ऐश के वैज्ञानिक निपटान के लिए इंजीनियर्ड लैंडफिल को बनाए रखने की लागत में कटौती करती हैं ।नतीजन कोयला फ्लाई ऐश नियमित रूप से बिजली संयंत्रों के करीब खाली भूमि पर असुरक्षित और खुले गड्ढे में फेंक दिया जाता है। एक समय के बाद वहां राख का ढेर तैयार हो जाता है जिस पर बिजली कंपनियां आगे भी उसी पर राख का ढेर तैयार करती जाती है।राख से विषाक्त पदार्थ जमीन में रिसते हैं और भूजल को दूषित करते हैं ।राख के ये तालाब राख के अत्यधिक वजन के कारण और मानसून के दौरान तटबंधों के रूप में घरों, गांव में कृषि भूमि और जल निकायों सहित आसपास के क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में राख का निर्वहन करते हैं। शुष्क मौसम के दौरान यह राख तालाब वायु प्रदूषण का स्त्रोत बन जाते हैं क्योंकि तूफान राख के विशाल बादलों को पर्यावरण में ले जाते हैं।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के याचिकाकर्ता जगत नारायण विश्वकर्मा ने कहा पिछले 2 वर्षों में सिंगरौली क्षेत्र में एस्सार एनटीपीसी और रिलायंस पावर जैसे बिजली उत्पादकों के प्लांट ने ऐश बंधो का उल्लंघन किया है । कंपनियों की लापरवाही के कारण हादसे फिर हुए हैं।ग्रामीणों ने लगातार बताया कि इन राख तालाबों की सीमाएं कमजोर है लेकिन कार्यवाही नहीं हुई।इस क्षेत्र में अनियंत्रित औद्योगिक विकास के कारण वायु, जल और मृदा प्रदूषण का वर्षों का अनुभव है जिसके कारण यहां रहने वाले समुदाय संपत्ति के साथ अपने स्वास्थ्य का भी दीर्घकालिक नुकसान उठाते हैं।”
वर्ष 2018-19 में उत्पन्न कुल 2017 मिलियन टन कोयले की राख में से केवल 168 मिलियन टन(77.5%) का उपयोग किया गया।फ्लाई ऐश का उपयोग सबसे ज्यादा 26•8% सीमेंट निर्माण के लिए,जबकि 13.5% निचले इलाकों के पुनर्वसन ,9•96 % ईटों, ब्लॉक और टाइल निर्माण हेतु, 9•94% राख डाइक बढाने में ,4•50% राजमार्गों और फ्लाईओवर में एवं 4•65% खदान भरने में प्रयोग किया जाता है। फ्लाई ऐश के संबंध में सुझाए उपायों में निचले क्षेत्रों को भरने,ईंटें आदि उत्पाद बनाने के लिए फ्लाई ऐश का उपयोग करने से इनमें घुले विषाक्त पदार्थों पर प्रश्नचिन्ह उठते हैं। यह निर्णायक वैज्ञानिक सहमति के अभाव में विवादास्पद विषय रहा है।रिपोर्ट में आंकड़े कहते हैं कि पूरे देश में तालाबों और टीलों में 1 अरब टन से अधिक राख रूपी विरासत अनुपयोगी है।